Shiva Mahimna Stotram: Unterschied zwischen den Versionen
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'''शिवमहिम्नः स्तोत्रम्''' | '''शिवमहिम्नः स्तोत्रम्''' | ||
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी | |||
:स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि | :स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः। | ||
: | :अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन् | ||
: | :ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः॥१॥ | ||
: | :अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः | ||
: | :अतद्-व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि। | ||
:स कस्य | :स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः | ||
: | :पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः॥२॥ | ||
:मधुस्फीता | :मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः | ||
:तव ब्रह्मन् | :तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्। | ||
:मम | :मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः | ||
: | :पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता॥३॥ | ||
: | :तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत् | ||
:त्रयीवस्तु | :त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु। | ||
:अभव्यानामस्मिन् वरद | :अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीम् | ||
: | :विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः॥४॥ | ||
: | :किमीहः किङ्कायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनम् | ||
: | :किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च। | ||
: | :अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः | ||
: | :कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः॥५॥ | ||
: | :अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगताम् | ||
: | :अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति। | ||
: | :अनीशो वा कुर्याद्भुवनजनने कः परिकरो | ||
: | :यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे॥६॥ | ||
:त्रयी | :त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति | ||
: | :प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च। | ||
: | :रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां | ||
: | :नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥७॥ | ||
: | :महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्मफणिनः | ||
: | :कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्। | ||
: | :सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां | ||
:न हि | :न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति॥८॥ | ||
: | :ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं | ||
: | :परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये। | ||
: | :समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव | ||
:स्तुवन् | :स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता॥९॥ | ||
: | :तवैश्वर्यं यत्नाद्-यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः | ||
: | :परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः। | ||
: | :ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत् | ||
: | :स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति॥१०॥ | ||
:अयत्नादासाद्य | :अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं | ||
: | :दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान्। | ||
: | :शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुहबलेः | ||
: | :स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्॥११॥ | ||
: | :अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनम् | ||
:बलात् | :बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः। | ||
: | :अलभ्यापातालेऽप्यलसचलिताङ्गुष्ठशिरसि | ||
: | :प्रतिष्ठा त्वय्यासीद्-ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः॥१२॥ | ||
: | :यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं | ||
: | :अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः। | ||
:न | :न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः | ||
:न कस्याप्युन्नत्यै भवति | :न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः॥१३॥ | ||
: | :अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा | ||
: | :विधेयस्याऽऽसीद्-यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः। | ||
:स | :स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो | ||
: | :विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भयभङ्ग-व्यसनिनः॥१४॥ | ||
:असिद्धार्था नैव क्वचिदपि | :असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे | ||
: | :निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः। | ||
:स पश्यन्नीश | :स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत् | ||
: | :स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः॥१५॥ | ||
:मही | :मही पादाघाताद्-व्रजति सहसा संशयपदम् | ||
: | :पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रहगणम्। | ||
: | :मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा | ||
: | :जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता॥१६॥ | ||
:वियद्व्यापी | :वियद्व्यापी तारागण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः | ||
: | :प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते। | ||
: | :जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति | ||
: | :अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः॥१७॥ | ||
: | :रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो | ||
: | :रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति। | ||
: | :दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर-विधिः | ||
: | :विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः॥१८॥ | ||
: | :हरिस्ते साहस्रं कमल-बलिमाधाय पदयोः | ||
: | :यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम्। | ||
: | :गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः | ||
: | :त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्॥१९॥ | ||
:क्रतौ | :क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमताम् | ||
:क्व कर्म | :क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते। | ||
: | :अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवम् | ||
:श्रुतौ | :श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः॥२०॥ | ||
: | :क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृताम् | ||
: | :ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुरगणाः। | ||
: | :क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः | ||
: | :ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः॥२१॥ | ||
: | :प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरम् | ||
: | :गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा। | ||
: | :धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुम् | ||
: | :त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः॥२२॥ | ||
: | :स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत् | ||
: | :पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि। | ||
:यदि | :यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात् | ||
:अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा | :अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः॥२३॥ | ||
: | :श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः | ||
: | :चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः। | ||
: | :अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं | ||
:तथाऽपि | :तथाऽपि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि॥२४॥ | ||
: | :मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः | ||
: | :प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः। | ||
: | :यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये | ||
: | :दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान्॥२५॥ | ||
: | :त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः | ||
: | :त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च। | ||
: | :परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरम् | ||
:न | :न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि॥२६॥ | ||
: | :त्रयीं तिस्रो वृत्तिस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान् | ||
: | :अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति। | ||
: | :तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः | ||
: | :समस्तव्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्॥२७॥ | ||
: | :भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान् | ||
:तथा | :तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्। | ||
: | :अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि | ||
:प्रियायास्मै | :प्रियायास्मै धाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते॥२८॥ | ||
: | :नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः | ||
: | :नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः। | ||
: | :नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः | ||
: | :नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः॥२९॥ | ||
: | :बहुलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः | ||
: | :प्रबलतमसे तत् संहारे हराय नमो नमः। | ||
: | :जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः | ||
:प्रमहसि | :प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः॥३०॥ | ||
: | :कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं | ||
:क्व च तव | :क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः। | ||
:इति | :इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्- | ||
:वरद | :वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम्॥३१॥ | ||
: | :असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे | ||
: | :सुरतरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी। | ||
:लिखति यदि | :लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं | ||
:तदपि तव | :तदपि तव गुणानामीश पारं न याति॥३२॥ | ||
: | :असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दुमौलेः | ||
: | :ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य। | ||
: | :सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः | ||
: | :रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार॥३३॥ | ||
: | :अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत् | ||
: | :पठति परमभक्त्या शुद्धचित्तः पुमान् यः। | ||
:स भवति | :स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र | ||
: | :प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च॥३४॥ | ||
: | :महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः। | ||
: | :अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्॥३५॥ | ||
: | :दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः। | ||
:महिम्नस्तव | :महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥३६॥ | ||
: | :कुसुमदशन-नामा सर्वगन्धर्वराजः | ||
: | :शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः। | ||
:स खलु | :स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात् | ||
: | :स्तवनमिदमकार्षीद्-दिव्य-दिव्यं महिम्नः॥३७॥ | ||
:सुरगुरुमभिपूज्य | :सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्गमोक्षैकहेतुं | ||
: | :पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्यचेताः। | ||
:व्रजति | :व्रजति शिवसमीपं किन्नरैः स्तूयमानः | ||
: | :स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम्॥३८॥ | ||
: | :आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्वभाषितम्। | ||
: | :अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम्॥३९॥ | ||
: | :इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्करपादयोः। | ||
:अर्पिता | :अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः॥४०॥ | ||
:तव | :तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर। | ||
: | :यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः॥४१॥ | ||
: | :एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः। | ||
: | :सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते॥४२॥ | ||
:श्री पुष्पदन्त-मुखपङ्कज-निर्गतेन | |||
:स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हरप्रियेण। | |||
:कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन | |||
:सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः॥४३॥ | |||
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Version vom 18. Februar 2015, 09:51 Uhr
Shiva Mahimna Stotram (Sanskrit: शिव महिम्न: स्तोत्रम् Śiva Mahimnah Stōtram) ist eine Hymne (Stotra) zur Verehrung von Shiva. Der Legende nach wurde Shiva Mahimna Stotram komponiert von einem Gandharva namens Pushpadanta. Shiva Mahimna Stotra zählt zusammen mit Shiva Tandava Stotram und Ardhanishvara Ashtakam zu den wichtigsten Hymnen zur Verehrung von Shiva. Gerade an https://www.yoga-vidya.de/yoga-buch/sivananda/feste-und-fasten/25-shivaratri/ Shivaratri wird Shiva Mahimna Stotram gerne rezitiert.
Text Shiva Mahimna Stotram
Hier findest du den Text der Shiva Mahimna Stotram in verschiedenen Schriften:
Shiva Mahimna Stotram in römischer Schrift
Hier der Text der Shiva Mahimna Stotram in römischer Schrift, in der IAST Transkription, also wissenschaftliche Transkription mit diakritischen Zeichen:
śivamahimnaḥ stōtram
- mahimnaḥ pāraṃ tē paramaviduṣō yadyasadṛśī
- stutirbrahmādīnāmapi tadavasannāstvayi giraḥ|
- athā'vācyaḥ sarvaḥ svamatipariṇāmāvadhi gṛṇan
- mamāpyēṣa stōtrē hara nirapavādaḥ parikaraḥ||1||
- atītaḥ panthānaṃ tava ca mahimā vāṅmanasayōḥ
- atad-vyāvṛttyā yaṃ cakitamabhidhattē śrutirapi|
- sa kasya stōtavyaḥ katividhaguṇaḥ kasya viṣayaḥ
- padē tvarvācīnē patati na manaḥ kasya na vacaḥ||2||
- madhusphītā vācaḥ paramamamṛtaṃ nirmitavataḥ
- tava brahman kiṃ vāgapi suragurōrvismayapadam|
- mama tvētāṃ vāṇīṃ guṇakathanapuṇyēna bhavataḥ
- punāmītyarthē'smin puramathana buddhirvyavasitā||3||
- tavaiśvaryaṃ yattajjagadudayarakṣāpralayakṛt
- trayīvastu vyastaṃ tisruṣu guṇabhinnāsu tanuṣu|
- abhavyānāmasmin varada ramaṇīyāmaramaṇīm
- vihantuṃ vyākrōśīṃ vidadhata ihaikē jaḍadhiyaḥ||4||
- kimīhaḥ kiṅkāyaḥ sa khalu kimupāyastribhuvanam
- kimādhārō dhātā sṛjati kimupādāna iti ca|
- atarkyaiśvaryē tvayyanavasara duḥsthō hatadhiyaḥ
- kutarkō'yaṃ kāṃścit mukharayati mōhāya jagataḥ||5||
- ajanmānō lōkāḥ kimavayavavantō'pi jagatām
- adhiṣṭhātāraṃ kiṃ bhavavidhiranādṛtya bhavati|
- anīśō vā kuryādbhuvanajananē kaḥ parikarō
- yatō mandāstvāṃ pratyamaravara saṃśērata imē||6||
- trayī sāṅkhyaṃ yōgaḥ paśupatimataṃ vaiṣṇavamiti
- prabhinnē prasthānē paramidamadaḥ pathyamiti ca|
- rucīnāṃ vaicitryādṛjukuṭila nānāpathajuṣāṃ
- nṛṇāmēkō gamyastvamasi payasāmarṇava iva||7||
- mahōkṣaḥ khaṭvāṅgaṃ paraśurajinaṃ bhasmaphaṇinaḥ
- kapālaṃ cētīyattava varada tantrōpakaraṇam|
- surāstāṃ tāmṛddhiṃ dadhati tu bhavadbhūpraṇihitāṃ
- na hi svātmārāmaṃ viṣayamṛgatṛṣṇā bhramayati||8||
- dhruvaṃ kaścit sarvaṃ sakalamaparastvadhruvamidaṃ
- parō dhrauvyā'dhrauvyē jagati gadati vyastaviṣayē|
- samastē'pyētasmin puramathana tairvismita iva
- stuvan jihrēmi tvāṃ na khalu nanu dhṛṣṭā mukharatā||9||
- tavaiśvaryaṃ yatnād-yadupari viriñcirhariradhaḥ
- paricchētuṃ yātāvanilamanalaskandhavapuṣaḥ|
- tatō bhaktiśraddhā-bharaguru-gṛṇadbhyāṃ giriśa yat
- svayaṃ tasthē tābhyāṃ tava kimanuvṛttirna phalati||10||
- ayatnādāsādya tribhuvanamavairavyatikaraṃ
- daśāsyō yadbāhūnabhṛta-raṇakaṇḍū-paravaśān|
- śiraḥpadmaśrēṇī-racitacaraṇāmbhōruhabalēḥ
- sthirāyāstvadbhaktēstripurahara visphūrjitamidam||11||
- amuṣya tvatsēvā-samadhigatasāraṃ bhujavanam
- balāt kailāsē'pi tvadadhivasatau vikramayataḥ|
- alabhyāpātālē'pyalasacalitāṅguṣṭhaśirasi
- pratiṣṭhā tvayyāsīd-dhruvamupacitō muhyati khalaḥ||12||
- yadṛddhiṃ sutrāmṇō varada paramōccairapi satīṃ
- adhaścakrē bāṇaḥ parijanavidhēyatribhuvanaḥ|
- na taccitraṃ tasmin varivasitari tvaccaraṇayōḥ
- na kasyāpyunnatyai bhavati śirasastvayyavanatiḥ||13||
- akāṇḍa-brahmāṇḍa-kṣayacakita-dēvāsurakṛpā
- vidhēyasyāsīd-yastrinayana viṣaṃ saṃhṛtavataḥ|
- sa kalmāṣaḥ kaṇṭhē tava na kurutē na śriyamahō
- vikārō'pi ślāghyō bhuvana-bhayabhaṅga-vyasaninaḥ||14||
- asiddhārthā naiva kvacidapi sadēvāsuranarē
- nivartantē nityaṃ jagati jayinō yasya viśikhāḥ|
- sa paśyannīśa tvāmitarasurasādhāraṇamabhūt
- smaraḥ smartavyātmā na hi vaśiṣu pathyaḥ paribhavaḥ||15||
- mahī pādāghātād-vrajati sahasā saṃśayapadam
- padaṃ viṣṇōrbhrāmyadbhuja-parigha-rugṇa-grahagaṇam|
- muhurdyaurdausthyaṃ yātyanibhṛta-jaṭā-tāḍita-taṭā
- jagadrakṣāyai tvaṃ naṭasi nanu vāmaiva vibhutā||16||
- viyadvyāpī tārāgaṇa-guṇita-phēnōdgama-ruciḥ
- pravāhō vārāṃ yaḥ pṛṣatalaghudṛṣṭaḥ śirasi tē|
- jagaddvīpākāraṃ jaladhivalayaṃ tēna kṛtamiti
- anēnaivōnnēyaṃ dhṛtamahima divyaṃ tava vapuḥ||17||
- rathaḥ kṣōṇī yantā śatadhṛtiragēndrō dhanurathō
- rathāṅgē candrārkau ratha-caraṇa-pāṇiḥ śara iti|
- didhakṣōstē kō'yaṃ tripuratṛṇamāḍambara-vidhiḥ
- vidhēyaiḥ krīḍantyō na khalu paratantrāḥ prabhudhiyaḥ||18||
- haristē sāhasraṃ kamala-balimādhāya padayōḥ
- yadēkōnē tasmin nijamudaharannētrakamalam|
- gatō bhaktyudrēkaḥ pariṇatimasau cakravapuṣaḥ
- trayāṇāṃ rakṣāyai tripurahara jāgarti jagatām||19||
- kratau suptē jāgrat tvamasi phalayōgē kratumatām
- kva karma pradhvastaṃ phalati puruṣārādhanamṛtē|
- atastvāṃ samprēkṣya kratuṣu phaladāna-pratibhuvam
- śrutau śraddhāṃ badhvā dṛḍhaparikaraḥ karmasu janaḥ||20||
- kriyādakṣō dakṣaḥ kratupatiradhīśastanubhṛtām
- ṛṣīṇāmārtvijyaṃ śaraṇada sadasyāḥ suragaṇāḥ|
- kratubhraṃśastvattaḥ kratuphala-vidhāna-vyasaninaḥ
- dhruvaṃ kartuṃ śraddhā vidhuramabhicārāya hi makhāḥ||21||
- prajānāthaṃ nātha prasabhamabhikaṃ svāṃ duhitaram
- gataṃ rōhidbhūtāṃ riramayiṣumṛṣyasya vapuṣā|
- dhanuṣpāṇēryātaṃ divamapi sapatrākṛtamamum
- trasantaṃ tē'dyāpi tyajati na mṛgavyādharabhasaḥ||22||
- svalāvaṇyāśaṃsā dhṛtadhanuṣamahnāya tṛṇavat
- puraḥ pluṣṭaṃ dṛṣṭvā puramathana puṣpāyudhamapi|
- yadi straiṇaṃ dēvī yamanirata-dēhārdha-ghaṭanāt
- avaiti tvāmaddhā bata varada mugdhā yuvatayaḥ||23||
- śmaśānēṣvākrīḍā smarahara piśācāḥ sahacarāḥ
- citā-bhasmālēpaḥ sragapi nṛkarōṭī-parikaraḥ|
- amaṅgalyaṃ śīlaṃ tava bhavatu nāmaivamakhilaṃ
- tathā'pi smartṝṇāṃ varada paramaṃ maṅgalamasi||24||
- manaḥ pratyak cittē savidhamavidhāyātta-marutaḥ
- prahṛṣyadrōmāṇaḥ pramada-salilōtsaṅgati-dṛśaḥ|
- yadālōkyāhlādaṃ hrada iva nimajyāmṛtamayē
- dadhatyantastattvaṃ kimapi yaminastat kila bhavān||25||
- tvamarkastvaṃ sōmastvamasi pavanastvaṃ hutavahaḥ
- tvamāpastvaṃ vyōma tvamu dharaṇirātmā tvamiti ca|
- paricchinnāmēvaṃ tvayi pariṇatā bibhrati giram
- na vidmastattattvaṃ vayamiha tu yat tvaṃ na bhavasi||26||
- trayīṃ tisrō vṛttistribhuvanamathō trīnapi surān
- akārādyairvarṇaistribhirabhidadhat tīrṇavikṛti|
- turīyaṃ tē dhāma dhvanibhiravarundhānamaṇubhiḥ
- samastavyastaṃ tvāṃ śaraṇada gṛṇātyōmiti padam||27||
- bhavaḥ śarvō rudraḥ paśupatirathōgraḥ sahamahān
- tathā bhīmēśānāviti yadabhidhānāṣṭakamidam|
- amuṣmin pratyēkaṃ pravicarati dēva śrutirapi
- priyāyāsmai dhāmnē praṇihita-namasyō'smi bhavatē||28||
- namō nēdiṣṭhāya priyadava daviṣṭhāya ca namaḥ
- namaḥ kṣōdiṣṭhāya smarahara mahiṣṭhāya ca namaḥ|
- namō varṣiṣṭhāya trinayana yaviṣṭhāya ca namaḥ
- namaḥ sarvasmai tē tadidamatisarvāya ca namaḥ||29||
- bahularajasē viśvōtpattau bhavāya namō namaḥ
- prabalatamasē tat saṃhārē harāya namō namaḥ|
- janasukhakṛtē sattvōdriktau mṛḍāya namō namaḥ
- pramahasi padē nistraiguṇyē śivāya namō namaḥ||30||
- kṛśa-pariṇati-cētaḥ klēśavaśyaṃ kva cēdaṃ
- kva ca tava guṇa-sīmōllaṅghinī śaśvadṛddhiḥ|
- iti cakitamamandīkṛtya māṃ bhaktirādhād-
- varada caraṇayōstē vākya-puṣpōpahāram||31||
- asitagirisamaṃ syāt kajjalaṃ sindhupātrē
- surataruvara-śākhā lēkhanī patramurvī|
- likhati yadi gṛhītvā śāradā sarvakālaṃ
- tadapi tava guṇānāmīśa pāraṃ na yāti||32||
- asura-sura-munīndrairarcitasyēndumaulēḥ
- grathita-guṇamahimnō nirguṇasyēśvarasya|
- sakala-gaṇa-variṣṭhaḥ puṣpadantābhidhānaḥ
- ruciramalaghuvṛttaiḥ stōtramētaccakāra||33||
- aharaharanavadyaṃ dhūrjaṭēḥ stōtramētat
- paṭhati paramabhaktyā śuddhacittaḥ pumān yaḥ|
- sa bhavati śivalōkē rudratulyastathā'tra
- pracuratara-dhanāyuḥ putravān kīrtimāṃśca||34||
- mahēśānnāparō dēvō mahimnō nāparā stutiḥ|
- aghōrānnāparō mantrō nāsti tattvaṃ gurōḥ param||35||
- dīkṣā dānaṃ tapastīrthaṃ jñānaṃ yāgādikāḥ kriyāḥ|
- mahimnastava pāṭhasya kalāṃ nārhanti ṣōḍaśīm||36||
- kusumadaśana-nāmā sarvagandharvarājaḥ
- śaśidharavara-maulērdēvadēvasya dāsaḥ|
- sa khalu nijamahimnō bhraṣṭa ēvāsya rōṣāt
- stavanamidamakārṣīd-divya-divyaṃ mahimnaḥ||37||
- suragurumabhipūjya svargamōkṣaikahētuṃ
- paṭhati yadi manuṣyaḥ prāñjalirnānyacētāḥ|
- vrajati śivasamīpaṃ kinnaraiḥ stūyamānaḥ
- stavanamidamamōghaṃ puṣpadantapraṇītam||38||
- āsamāptamidaṃ stōtraṃ puṇyaṃ gandharvabhāṣitam|
- anaupamyaṃ manōhāri sarvamīśvaravarṇanam||39||
- ityēṣā vāṅmayī pūjā śrīmacchaṅkarapādayōḥ|
- arpitā tēna dēvēśaḥ prīyatāṃ mē sadāśivaḥ||40||
- tava tattvaṃ na jānāmi kīdṛśō'si mahēśvara|
- yādṛśō'si mahādēva tādṛśāya namō namaḥ||41||
- ēkakālaṃ dvikālaṃ vā trikālaṃ yaḥ paṭhēnnaraḥ|
- sarvapāpavinirmuktaḥ śivalōkē mahīyatē||42||
- śrī puṣpadanta-mukhapaṅkaja-nirgatēna
- stōtrēṇa kilbiṣa-harēṇa harapriyēṇa|
- kaṇṭhasthitēna paṭhitēna samāhitēna
- suprīṇitō bhavati bhūtapatirmahēśaḥ||43||
||iti śrīpuṣpadantaviracitaṃ śivamahimnaḥ stōtraṃ sampūrṇam||
Shiva Mahimna Stotram auf Devanagari
Hier findest du Shiva Mahimna Stotram in der Devanagari Schrift:
शिवमहिम्नः स्तोत्रम्
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी
- स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।
- अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्
- ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः॥१॥
- अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः
- अतद्-व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि।
- स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः
- पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः॥२॥
- मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः
- तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्।
- मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः
- पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता॥३॥
- तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्
- त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु।
- अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीम्
- विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः॥४॥
- किमीहः किङ्कायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनम्
- किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च।
- अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः
- कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः॥५॥
- अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगताम्
- अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति।
- अनीशो वा कुर्याद्भुवनजनने कः परिकरो
- यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे॥६॥
- त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
- प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।
- रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां
- नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥७॥
- महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्मफणिनः
- कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्।
- सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां
- न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति॥८॥
- ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं
- परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये।
- समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव
- स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता॥९॥
- तवैश्वर्यं यत्नाद्-यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः
- परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः।
- ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्
- स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति॥१०॥
- अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
- दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान्।
- शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुहबलेः
- स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्॥११॥
- अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनम्
- बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः।
- अलभ्यापातालेऽप्यलसचलिताङ्गुष्ठशिरसि
- प्रतिष्ठा त्वय्यासीद्-ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः॥१२॥
- यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं
- अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः।
- न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः
- न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः॥१३॥
- अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा
- विधेयस्याऽऽसीद्-यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः।
- स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
- विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भयभङ्ग-व्यसनिनः॥१४॥
- असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
- निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।
- स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्
- स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः॥१५॥
- मही पादाघाताद्-व्रजति सहसा संशयपदम्
- पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रहगणम्।
- मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा
- जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता॥१६॥
- वियद्व्यापी तारागण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः
- प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते।
- जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति
- अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः॥१७॥
- रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो
- रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति।
- दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर-विधिः
- विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः॥१८॥
- हरिस्ते साहस्रं कमल-बलिमाधाय पदयोः
- यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम्।
- गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः
- त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्॥१९॥
- क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमताम्
- क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते।
- अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवम्
- श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः॥२०॥
- क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृताम्
- ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुरगणाः।
- क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः
- ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः॥२१॥
- प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरम्
- गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा।
- धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुम्
- त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः॥२२॥
- स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्
- पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि।
- यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्
- अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः॥२३॥
- श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः
- चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः।
- अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
- तथाऽपि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि॥२४॥
- मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः
- प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः।
- यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये
- दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान्॥२५॥
- त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः
- त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च।
- परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरम्
- न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि॥२६॥
- त्रयीं तिस्रो वृत्तिस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्
- अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति।
- तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
- समस्तव्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्॥२७॥
- भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्
- तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्।
- अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
- प्रियायास्मै धाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते॥२८॥
- नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः
- नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः।
- नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः
- नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः॥२९॥
- बहुलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः
- प्रबलतमसे तत् संहारे हराय नमो नमः।
- जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः
- प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः॥३०॥
- कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं
- क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः।
- इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्-
- वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम्॥३१॥
- असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे
- सुरतरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी।
- लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
- तदपि तव गुणानामीश पारं न याति॥३२॥
- असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दुमौलेः
- ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य।
- सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः
- रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार॥३३॥
- अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्
- पठति परमभक्त्या शुद्धचित्तः पुमान् यः।
- स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र
- प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च॥३४॥
- महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः।
- अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्॥३५॥
- दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः।
- महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥३६॥
- कुसुमदशन-नामा सर्वगन्धर्वराजः
- शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः।
- स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्
- स्तवनमिदमकार्षीद्-दिव्य-दिव्यं महिम्नः॥३७॥
- सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्गमोक्षैकहेतुं
- पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्यचेताः।
- व्रजति शिवसमीपं किन्नरैः स्तूयमानः
- स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम्॥३८॥
- आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्वभाषितम्।
- अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम्॥३९॥
- इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्करपादयोः।
- अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः॥४०॥
- तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर।
- यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः॥४१॥
- एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः।
- सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते॥४२॥
- श्री पुष्पदन्त-मुखपङ्कज-निर्गतेन
- स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हरप्रियेण।
- कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन
- सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः॥४३॥
-
॥इति श्रीपुष्पदन्तविरचितं शिवमहिम्नः स्तोत्रं सम्पूर्णम्॥